आश्रम

वन के अंधकार में पत्थर का आश्रम खड़ा है—स्थिर, पर अपूर्ण। भय रोकता है, चिंता उठती है; किन्तु उसी वन में एक वृक्ष है, जहाँ त्यागे गए ढाँचे की गूँज से नया मार्ग प्रकट होता है।

एक आदर्शात्मक दर्पण: अंधकारमय वन में स्थित द्विगुणित आश्रम विभाजित मन का खाका बन जाता है— समेकन का कैंसर और दो रिक्त समाधियों के बीच का झूठा विकल्प।
सुशोभित पत्थर—कठोर, जड़,
दृष्टि भ्रमित, मन रहा अचेत।
स्थिर है जैसे नभ में बादल,
पर भीतर शून्य, न जीवन-रेख।
सब कुछ क्रम में, त्रुटि न एक,
दीवारें दृढ़, न रेत, न लेख।
न आँधी, न संदेह, न काल,
एक का राज, शेष सब शून्य हाल।
किन्तु संपूर्णता से रिक्त,
स्वयं थोपित यह दारुण लिप्त।
भय रोके, चिंता उठे,
वन के भीतर वृक्ष खोजे।
किरण प्रकट, आधार मिला,
पग-पग साधक ध्यान दिया।
क्षण को थाम, पथ को साध,
अपना ढूँढे, अपरिचित साध।
त्याग दिया वह पत्थर-गृह,
कौन गया, या कौन बसा उर?
जो स्थिर था, अब बहता है,
जड़ से जागे, मौन बने गान।

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